Sunday, September 4, 2022

मुलाक़ात जो. भी. दोषी जी से...

 मुलाक़ात जो. भी. दोषी जी से...

उनका चेहरा बड़ा जाना पहचाना लग रहा था| न चाहते हुए भी उन्हें पहचानने के प्रयास में, मैं उन्हें बार बार कनखियों से देख रहा था| वो महाशय भी शायद समझ रहे थे कि मैं उन्हें पहचानने की कोशिश में हूँ| उन्होंने बड़े आराम से मेरी तरफ मुखातिब होते हुए बोला, शुक्ला जी मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हो! मैं जो.भी. दोषी और उन्होंने अपना दायाँ हाथ मेरी तरफ बड़ा दिया| मैंने हाथ मिलाते हुए कहा, मैं शुक्ला| उन्होंने हाथ मिलाते हुए कहा, मैं आ पको जानता हूँ| इन्फेक्ट, शायद ही ऐसा कोई हो, जिसे मैं नहीं जानता होऊंगा| इस बीच तिवारी जी से निगाह मिली तो वे पान में कत्था लगाते हुए मुस्करा कर बोले लो भैया को नहीं जानते, अरे बड़ी लोकप्रिय पर्सनालिटी हैं| इंडिया में रहते हो और भैय्या जी को नहीं जानते..आप भी शुक्ला जी! तिवारी जी का चेहरा कुछ ऐसा कह रहा था, मानो, दोषी जी को नहीं जानकर मैंने तिवारी का ही अपमान कर दिया हो|
मैंने फिर दोषी जी याने अब तक नाम के आगे श्री लगवाने का अधिकार स्वयंमेव मुझसे भी हासिल कर चुके श्री जो.भी.दोषी की तरफ देखा| उनके चेहरे पर हंसी से थोड़ी कम और मुस्कान से कुछ बड़ी मुस्कराहट थी| मुझे दोषी जी के चेहरे पर छायी मुस्कराहट बड़ी जानी पहचानी लगी| कहाँ देखी है? हाँ, याद आया, ऐसी मुस्कराहट मैंने उस दादा के चेहरे पर देखता हूँ, जिसके घर चौबीसों घंटे जुआं चलता रहता है| दंभ भरी, चोरी और सीनाजोरी वाली, गर्व से सनी मुस्कराहट, जिसमें छुपी उद्दंडता आपको घुड़की देती रहती है, हाँ तुम सब कुछ जानते हो, लेकिन मेरा क्या बिगाड़ सकते हो?
नहीं, शायद ये मुस्कराहट मैंने अपने जिले के उस जिलाधीश के चेहरे पर देखी थी, जिसके पास मैं दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों का प्रतिनिधिमंडल लेकर गया था| ज्ञापन सुनने के बाद जिलाधीश ने इसी मुस्कराहट के साथ कहा था, शुक्ला जी हमारे देश में जनवाद है और जनवाद में कोई भूखा नहीं मर सकता|
नहीं..नहीं..शायद ये मुस्कराहट मैंने पिछले चुनाव के वक्त अपने क्षेत्र के विधायक के चेहरे पर देखी थी, जब वो जनसंपर्क के लिए निकला था कि शुक्ला तुम जितना लिख सकते हो मेरे खिलाफ लिख लो, मगर तुम्हारे घर से लगी बस्ती में बकरे और बोतल दोनों पहुँच चुके हैं, जीतूंगा तो मैं ही|
मुझे अचानक महसूस हुआ कि मैं बेकार ही कन्फ्यूज हो रहा हूँ। ये तो बड़ी कॉमन मुस्कराहट है जो प्रदेश से लेकर देश के हर उस नेता के चेहरे पर उस समय चिपकी रहती है जब वे संसद, विधानसभा से लेकर चुनावी मंचो तक प्रत्येक जगह प्रत्येक भाषण में झूठों का अंबार लगाते हैं और आपसे उम्मीद करते हैं कि आप उनकी बातों पर, सच मानकर विश्वास करें और उन्हें मालूम रहता है कि हमें मालूम है कि वो जो कह रहे है वह सब झूठ के अलावा कुछ नहीं है।
मैं सोच ही रहा था कि तिवारी ने क्लासिकल सिगरेट का पेकेट और लाईटर दोषी जी को नजर करने के बाद पान का बीड़ा मेरी तरफ बढ़ते हुए कहा मल्टी डायमेंशनल पर्सनालिटी है भैया जी की, नेता, अधिकारी, सेठ, बिल्डर, ठेकेदार सबका दिमाग रखते हैं, भैया जी| मैं अभी भी उन्हें पहचानने की प्रक्रिया से बाहर नहीं निकल पाया था| मैंने दोषी जी से कहा कि मैंने तो एक ही दोषी को नाम सुना था, वो भी बहुत पहले, जो हिन्दी में क्रिकेट का आँखों देखा हाल सुनाया करते थे| जो. भी. जोशी जी ने मेरी तरफ हल्की सी हिकारत से देखा और कहा तुम आम लोगों की यही तो समस्या है, जो दिखता है, उसे मानते नहीं हो और जो नहीं दिखता उसके पीछे पड़े रहते हो| देश में शायद ही ऐसा कोई समझदार होगा, जो मुझे नहीं जानता हो या जिसने मेरे बारे में न सूना हो| इतनी बड़ी पर्सनालिटी को न जानने से जो शर्म के भाव किसी व्यक्ति के चेहरे पर आते हैं, मेरे चेहरे पर छाने को ही थे कि तिवारी जी ने मेरे पान के कोटे की थैली मुझे पकडाते हुए कहा कि भैया जी की लीला अपरम्पार है, ये ही दोषी हैं और ये ही दोषी को ढूंढते रहते हैं और लोग इनके ही पकडे जाने की उम्मीद इनसे ही लगाए रहते हैं| ये ही कर्ता हैं, ये ही धर्ता हैं| कर्म भी ये ही हैं, धर्म भी ये ही हैं| ये ही साज हैं और ये ही सजा हैं|
तिवारी जी के गीता पाठ ने मेरा कनफ्यूजन दूर करने की बजाय डबल कर दिया था| मैंने सीधे दोषी जी ही से पूछा आखिर आप हैं कौन? उनके चेहरे की मुस्कान और तीखी हो गई| आप जैसे आम लोगों के साथ यही सबसे बड़ी परेशानी है, आप लोग सब जानने के बाद भी नहीं जानने का नाटक करते हैं| अरे, हर घोटाले, हर स्केंडल, के बाद कहा नहीं जाता ‘दोषी’ को बख्शा नहीं जाएगा| मैं वही ‘दोषी’ हूँ| ‘जो.भी.दोषी’| मैंने पूछा आप रहते कहाँ हैं? आपका निवास? वो हो..हो..करके हंस पड़े| बोले, मैं सर्वव्यापी हूँ| देश में शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसके अन्दर मैं नहीं रहता| मैंने बात के और खुलासे के लिए तिवारी जी की तरफ देखा, वो पान लगाने में मशगूल थे, पलटा तो जो.भी. दोषी गायब थे|

Wednesday, August 31, 2022

स्वतंत्रता संग्राम में बुलबुल का योगदान विषय पर निबंध

स्वतंत्रता संग्राम में बुलबुल का योगदान विषय पर निबंध

रावण का वध करके श्रीराम सीताजी पुष्पक विमान से अपनी मातृभूमि अयोध्या पधारे थे उसी तरह वीर जी बुलबुल के पंखों पर बैठकर मातृभूमि के दर्शन करने आते थे l बुलबुल सुबह आती थी वीर जी को अपने पंखों में बैठाती थी दिन भर पुण्यभूमि भारत की सैर करा के वापिस उन्हें उनकी बैरक में छोड़ जाती थी l जेल में बंद और कैदियों के मन मे भी इंडिया दर्शन की चाह पैदा हो गई लेकिन बुलबुल ने किसी और को घुमाने से साफ इनकार कर दिया l


वीर जी की माफी मंजूर होने के बाद जब जेल से छूटे तो उन्हें 60 रुपये महीने पेंशन मिलती थी l जबकि उस समय कलेक्टर को 40 रुपये पगार मिलती थी और सोना 40 रुपये तोला था l वीर जी रत्नागिरी में रहते थे l बुलबुल वीर के पास तब भी आती थी और आंगन में फुदकती रहती थी l वीर जी अपनी पेंशन में से 2 रुपये बुलबुल के दानापानी के लिए सुरक्षित रखते थे lस्वतंत्रता संग्राम में बुलबुल का योगदान स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा l

Tuesday, June 1, 2021

 

मन की बात सुनो

मन की बात

12 May, 2021683 words

 

अब ऐसा तो नहीं है की मन की बात करने पर किसी का कोई कॉपी राईट हो। ये तो मन की बात है। कोई कहानी या कविता या उपन्यास तो है की नहीं कि भाई आपने मेरा लिखा चुरा लिया है। मैं अब आपके ऊपर मुकदमा दायर करूँगा. वैसे भी मन की बात सिर्फ मन की बात होती है। कोई काम की बात तो नहीं कि इसके पीछे झगड़े होने लगें कि न पहले मैंने की थी तूने नहीं और सामने वाला कहे कि नहीं तूने नहीं पहले मैंने की थी। वैसे मन की बात होती बड़ी अच्छी है। मन की बात की आड़ में आप मनगढ़ंत बात भी कर सकते हैं और यदि आपकी पूछ परख अच्छी है तो मनगढ़ंत बात को सच साबित करने के लिये गवाह भी जुटा सकते हैं। वैसे बातें दो ही प्रकार की होती हैं एक मन की बात और दूसरी काम की बात। जब मन की बात होती है तो काम की बात नहीं होती है। जब काम की बात होती है तो कोई बात नहीं होती सिर्फ काम होता है।

वैसे मन की बात करना भी सब के बस की बात नहीं होती है. मन की बात वही कर सकता है जो बहुत बात करता है। कम बात करने वाला मन की बात नहीं करता। दरअसल मन की बात करने के लिये मनगढ़ंत बात करनी होती है और कम बात करने वालों को मनगढ़ंत बात करते नहीं बनता। वैसे जानकार लोग कहते हैं कि जो काम करते हैं वे मन की बात नहीं कर सकते क्योंकि काम करने के लिये सोच-विचार करना होता है। प्लानिंग करनी होती है। अनेक जानकारों से सलाह मशविरा करना होता है तब जाकर काम की बात होती है। मन की बात करने के लिए यह सब नहीं करना होता। जो बात मन में आये उसे कर लो। उसके बाद उस बात को सही सिद्ध करने के लिये और मन की बात करते जाओ। इस तरह मन की बात आप अनवरत कर सकते हैं पर काम की बात में ये बात कहाँ।

मन की बात की एक खासियत और होती है। इसमें काम की बात नहीं होती मजे की बात होती है तो लोगों को मन की बात समझने के लिये दिमाग खर्च नहीं करना पड़ता।इसलिये मन की बात लोगों को समझ में आये न आये पर अच्छी बहुत लगती है। इसीलिये मन की बात करने वालों को लोग बहुत पसंद करते हैं। अब शेखचिल्ली को ही लो। उसने हवा में महल बनाया। व्यापार किया। राजकुमार बन गया।शादी कर ली और उसे कुछ भी काम नहीं करना पड़ा। अब ये बात अलग है कि जब वह हवाई महल गायब हुआ तो लोग उस पर बहुत हँसे पर वो लोकप्रिय तो आज तक है। कुछ मन की बात करने वाले सनकी भी कहलाते हैं।पर, जो पक्का मन की बात करने वाला होता है वो लोगो की परवाह नहीं करता बल्कि लोग कहें उसके पहले ही कहने लगता है कि मुझे मालूम है लोग मुझे सनकी कहते हैं। कहो और बार बार कहो। पर, मेरी मन की बात सुनो।

अरुण कान्त शुक्ला, 12 मई 2021

 

Tuesday, May 29, 2018

हमारे पास योजना है|

हमारे पास योजना है|
कांग्रेस ने पिछले 60 सालों के राज में किया क्या? गर्मी भी ठीक से नहीं पड़ने दी| हम अभी कांग्रेस के पाप धो रहे हैं| 2022 तक रुकिए, हमारे पास योजना है कि इससे भी भीषण गर्मी लाकर दिखाएँगे|
अरुण कान्त शुक्ला 
29/5/2018

Monday, December 19, 2016

पांच मूर्खों की तलाश बनाम अफलातून को सबक सिखाओ..

पांच मूर्खों की तलाश बनाम अफलातून को सबक सिखाओ  

एक आधुनिक व्यंग्य बोध कथा

रोज की तरह शाम होते ही बच्चे दद्दू को कहानी सुनने के लिए घेर कर बैठ गये| दद्दू गला साफ़ करने के बाद कहानी शुरू करते, उसके पहले ही अनी बोली, दद्दू हम रोज रोज वही अकबर-बीरबल, राजा कृष्णचन्द्र और तेनाली राम, बेताल की कहानियाँ सुनते सुनते बोर हो गए हैं| आज तो आपको कोई नई कहानी सुनानी पड़ेगी| अनी की बात के समर्थन में गरदन हिलाते हुए सोना और माही भी बोलीं, हाँ, दद्दू एकदम लेटेस्ट| धवल, अयन भी कहने लगे, हाँ, दद्दू एकदम लेटेस्ट| दद्दू ने आँख बंद करके कुछ देर सोचा और फिर कहा, अच्छा आज तुम्हें एकदम लेटेस्ट कहानी सुनाता हूँ| दद्दू ने एकबार फिर गला साफ़ किया और कहानी शुरू की| एकदम लेटस्ट बात है, हमारे ही देश में करीब ढाई वर्ष पूर्व एक व्यक्ति एक पन्त का प्रधान चुना गया| अब तुम लोग तो जानते ही हो कि चुनाव के पूर्व नेताओं को आम जनता को अपने पक्ष में करने के लिए कितने वायदे करने पड़ते हैं और विरोधियों के कामों का बुरा बताकर उनका कितना मजाक बनाना पड़ता है| उस पन्त प्रधान ने भी देश का प्रधान बनने के लिए अपने विरोधियों के कामों की बहुत बुराई की और उनके कामों का बहुत मजाक बनाया| माही ने सर हिलाते हुए कहा, हाँ, दद्दू और बाद में ऐसे नेता अपने वायदे भूल जाते हैं और जो मर्जी में आये करते हैं| अब नोटबंदी को ही देखो, हमारे पापा को कितना परेशान होना पड़ रहा है| हाँ, दद्दू ने कहा, पर, इस कहानी का नोटबंदी से कोई संबंध नहीं है, इसलिए आगे कोई टोका-टोकी न करना| ठीक है दद्दू, सभी बच्चे एक साथ बोले|

दद्दू ने फिर से गला साफ़ करते हुए कहानी आगे बढ़ाई| तो, जैसा कि चुनावों के समय में होता है, उस पन्त प्रधान ने भी अपने को सबसे अधिक होशियार और श्रेष्ठ बताने के लिए ऐसी ऐसी बातें कहीं, जिन पर मूर्ख ही भरोसा कर सकते थे| उस दौरान, उसने दूसरे देशों के बारे में और अपने देश के बारे में ऐसी कई बातें कहीं, जो पूरी तरह गलत और झूठी थीं| पर, देश में ऐसे भी अनेक लोग थे, जिन्हें वह जादूगर जैसा लगता था और उन्हें लगता था, जो वह कह रहा है, वैसा हो सकता है| पर, जादू जैसा तो कुछ होता ही नहीं है, अनी बोली| जादूगर तो लोगों को बुद्धू बनाता है| हाँ, दद्दू ने कहा, पर जादू के खेल में कई लोगों को बहुत मजा आता है और कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो उस पर विश्वास भी कर लेते हैं| हाँ, धवल बोला, जब मैं बहुत छोटा था तो मुझे भी जादू सचमुच का लगता था| दद्दू ने कहा, फिर तुम लोग बीच में बोलने लगे, आगे बोलना नहीं, नहीं तो कहानी खत्म| नहीं बोलेंगे दद्दू, बच्चे एक स्वर में बोले| तो, अपने देश में भी ऐसे लोग थे, जिन्हें उस नेता की बातों पर भरोसा हो गया, उन्हें लगा कि वो जादूगर के समान सब कुछ ठीक कर देगा| पर, जादूगर का काम तो लोगों को बुद्धू बनाकर पैसे कमाना होता है| इसी तरह देश के धनी लोग भी ऐसे किसी व्यक्ति की तलाश में रहते हैं, जो जनता को बुद्धू बनाकर, उनके लिए धन कमाने का रास्ता बनाए| इसलिए देश के धनी लोगों ने भी चुनाव के समय प्रचार करने के लिए उस व्यक्ति की बहुत मदद की और उस नेता का पन्त देश का सबसे बड़ा पन्त बना और वह नेता देश का प्रधान बन गया|

इतना बोलने के बाद दद्दू थोड़ा रुके तो सोना तुरंत बोली, दद्दू, तो क्या उसने वायदे पूरे किये| कहाँ से करता? दद्दू ने कहा, उलटे वो हर महीने अपनी मन की बात बता-बता कर लोगों को और बुद्दू बनाने लगा| वैसे, एक बार उसने स्वीकार भी किया कि प्रधान बनने के पहले उसने जो कुछ कहा था, वह सब करना मुश्किल है और वह केवल लोगों को बहलाने के लिए बातें बनाता था| पर, जिन लोगों ने उसकी शेखीभरी बातों में आकर उसे चुना था, वो तब भी उसके भक्त बने रहे| उसने मंत्रीमंडल में भी वैसे सभी लोगों को रखा, जो उसे जादूगर समझते थे| इनका काम था रोज उसके गुणगान करना| अब जो कोई भी प्रधान या उसके मंत्रीमंडल के लोगों की गलती निकालता, उसे चुनने वाले भक्त, उस व्यक्ति के पीछे पड़ जाते| कभी गाली देते, कभी मार-पीट करते थे| पर, प्रधान को लोगों के बुद्धूपन पर भरोसा था और वह जानता था कि जब तक ऐसे लोग हैं, उसके शासन पर कोई खतरा नहीं है| उसके मंत्रीमंडल में एक कवि मक्खन प्रसाद भी थे| प्रधान ने एक दिन उनसे पूछा कि बताओ कि देश में कितने मूर्ख हैं? मक्खन प्रसाद ने जबाब दिया कि प्रत्येक 10 व्यक्तियों में कम से कम 3 लोग तो हैं| यह तो हम चुनकर आये हैं, इसी से स्पष्ट है| प्रधान संतुष्ट नहीं हुआ, बोला, अच्छा एक काम करो, देश के सबसे अधिक पांच मूर्ख व्यक्तियों को ढूंढकर लाओ| मक्खन प्रसाद, तुरंत उड़नखटोले में बैठकर सबसे बड़े पांच मूर्खों को ढूँढने के लिए निकल पड़े| वे बार-बार उड़नखटोले से मूर्खों की तलाश में नीचे झांकते जा रहे थे| अभी मक्खन प्रसाद  राजधानी के बाहर भी नहीं निकले थे कि उन्होंने देखा कि एक छोटे से घर में रहने वाला एक व्यक्ति चिड़ियों को दाना खिला रहा है और उसके बाजू में ही एक चार मंजिला इमारत में रहने वाला दूसरा व्यक्ति उस दाना खिलाने वाले को बड़े ध्यान से देख रहा है| मक्खन प्रसाद ने अपना उड़नखटोला उस चार मंजिला इमारत की छत पर उतरवाया और उस व्यक्ति से पूछा कि वह नीचे क्या देख रहा है? उस व्यक्ति ने जबाब दिया, माननीय, आप नीचे देखिये, वहाँ उस छोटे से मकान के आँगन में खड़ा व्यक्ति कितना मूर्ख है, वह चिड़ियों को उड़ना सिखा रहा है| मक्खन प्रसाद को पूरा भरोसा हो गया, यह तो मूर्खता में हमारा भी चाचा है, उन्होंने तुरंत उसे अपने उड़नखटोले में बिठा लिया और दूसरे मूर्ख की तलाश में निकल पड़े| 

कुछ देर उड़ने के बाद उन्होंने देखा कि नीचे एक नदी के किनारे एक व्यक्ति काँटा डालकर नदी से मछली पकड़ रहा है और पास ही कुछ दूरी पर कार में बैठा एक दूसरा व्यक्ति मछली पकड़ने वाले व्यक्ति को बड़े ध्यान से देख रहा है| मक्खन प्रसाद जी ने अपना उड़नखटोला वहां उतरवाया और कार में बैठे उस दूसरे व्यक्ति से पूछा कि भाई वह व्यक्ति तो मछली पकड़ रहा है, तुम यहाँ उसे देखते क्यों खड़े हो| उस दूसरे व्यक्ति ने कहा कि तुम्हें दिखाई नहीं देता क्या? वह मछली नहीं पकड़ रहा है, कितना मूर्ख है, वह तो मछलियों को तैरना सिखा रहा है| मक्खन प्रसाद खुश हो गए कि चलो ये भी मूर्खता में मेरा बड़ा भाई निकला और उन्होंने उसे भी प्रधान से मिलवाने के लिए उड़नखटोले में बिठा लिया| उड़ते उड़ते वे एक रेगिस्तान के ऊपर से गुजरे| उन्होंने नीचे देखा कि एक व्यक्ति ऊँट पर बैठकर रेगिस्तान में जा रहा है और एक दूसरा व्यक्ति उस ऊँट पर बैठकर जाते व्यक्ति को बहुत ध्यान से देख रहा है| उन्होंने तुरंत अपना उड़नखटोला नीचे उतरवाया और उस दूसरे व्यक्ति से पूछा कि वह वहां खड़े खड़े क्या कर रहा है? उस दूसरे व्यक्ति ने जबाब दिया कि देखो वह व्यक्ति जो रेगिस्तान में है कितना मूर्ख है, रेत में नाव चला रहा है| इस तरह, मक्खन प्रसाद को तीसरा मूर्ख भी मिल गया| पर, वे दिन भर घूमते रहे पर उन्हें चौथा और पांचवा मूर्ख नहीं मिला| वे थकहार कर एक जगह आराम करने के लिए रुके| कुछ देर बाद एक साधारण सा दिखने वाला व्यक्ति भी वहाँ से गुजाते हुए अपनी थकान उतारने वहाँ बैठा| उसने मक्खन प्रसाद के चेहरे पर चिंताएं देखीं तो उसने सुहानभुती दिखाते हुए चिंता का कारण पूछा| मक्खन प्रसाद ने उसे पूरी बात बताकर पूछा कि क्या तुम ऐसे किन्हीं दो मूर्खों को जानते हो? उस व्यक्ति ने कहा, हाँ, क्यों नहीं| मक्खन प्रसाद बोले जल्दी से उनका पता बताओ, मुझे आज ही सभी मूर्खों को ले जाकर प्रधान जी से मिलवाना है| उस साधारण से दिखने वाले व्यक्ति ने कहा, आप बिलकुल चिंता न करें, मुझे प्रधान जी के पास ले चलें, मैं वहीं बाकी दो से उनकी मुलाक़ात करवा दूंगा| 

मरता क्या न करता, मक्खन प्रसाद चारों को लेकर प्रधान के पास पहुंचे| प्रधान ने पांच की जगह चार लोगों के देखकर कहा कि मक्खन प्रसाद तुम्हें तो पांच महामूर्खों के लाने कहा था, पर, ये तो चार ही हैं| मक्खन प्रसाद बोले, माननीय, मूर्ख तो इनमें से तीन ही हैं, यह चौथा तो साधारण व्यक्ति है, यह कहता है कि यह बाकी दो मूर्खों को जानता है और केवल आपसे उनका परिचय कराएगा| उसके बाद मक्खन प्रसाद ने पहले तीन मूर्खों की कहानी बताई और राजा से उनका परिचय कराया| तीनों की मूर्खता से प्रधान बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें बहुत टेक्स माफी, नदियों का पानी मुफ्त इस्तेमाल करने, काला धन सफ़ेद करने की योजना जैसे ढेर सारे उपहार दिए| फिर, चौथे आदमी की ओर देखकर कहा, हाँ, अब तुम बतलाओ, चौथा और पांचवां मूर्ख कौन है? हाँ, पहले अपना नाम बताओ? चौथे आदमी ने कहा, माननीय, मेरा नाम अफलातून है| मैं एक आम आदमी हूँ| ठीक है, बतलाओ चौथा और पांचवां मूर्ख कौन है और कहाँ है, याद रखो, हमें देर बिलकुल पसंद नहीं है| चौथा व्यक्ति बोला, माननीय, चौथे मूर्ख आप है, प्रजा के हितों से जुड़े अनेक कार्यों के बकाया रहते, ऐसा बकवादी काम अपने मंत्री को सौंपा| और आप से भी बड़ा मूर्ख यह मंत्री है, जिसने इतना मूर्खतापूर्ण कार्य करने के लिए सरकारी पैसे का दुरुपयोग किया और उड़नखटोले पर बैठकर दिन भर घूमता रहा| इतना सुनना था कि प्रधान सहित सभी मंत्री, भक्त, अफलातून को सबक सिखाओ- अफलातून को सबक सिखाओ चिल्लाते उस आम आदमी को मारने दौड़ पड़े| कहानी खत्म करने के बाद दद्दू ने बच्चों की तरफ देखा तो सभी बच्चे एकसाथ चिल्लाए, दद्दू ये लेटेस्ट नहीं, लेटेस्ट की भी लेटेस्ट याने आज की कहानी है|

अरुण कान्त शुक्ला
18/12/2016                                                                      


Thursday, September 15, 2016

हिन्दी हेतु रुदन दिवस

कहीं पढ़ा था कि स्वतंत्रता पश्चात 15 अगस्त की सुबह जब एक पत्रकार ने गांधी से पूछा कि आप दुनिया से कुछ कहना चाहेंगे तो गांधी ने कहा कि जाओ और दुनिया से कह दो को गांधी अंगरेजी भूल गया|

उस पत्रकार ने यह बात पूरी दुनिया को बताई,पर, वह गांधी का यह सन्देश भारत में बताना भूल गया|

भारत सरकार को 1953 में पता चला कि भारत में तो लोग अंगरेजी के बजाय हिन्दी भूल रहे हैं तो तय किया गया कि प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को पूरे भारत में हिन्दी दिवस मनाया जाए ताकि लोगों को याद रहे कि हिन्दी भारत की ही एक भाषा है| 

स्वतन्त्र भारत की राजभाषा के प्रश्न पर 14 सितंबर 1949 को काफी विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया गया जो भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343(1) में इस प्रकार वर्णित है:

[2] संघ की राज भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा। चूंकि यह निर्णय 14 सितंबर को लिया गया था। इस कारण हिन्दी दिवस के लिए इस दिन को श्रेष्ठ माना गया था। 
हम अब यह भूल चुके हैं और धड़ल्ले से शिक्षा से लेकर प्रत्येक स्तर पर अंगरेजी के गुलाम बन चुके हैं| 

अब 14 सितम्बर हिन्दी के लिए आंसू बहाने के उत्सव में बदल चुका है| इसलिए अब यह मांग उठनी चाहिए कि 14 सितम्बर का नाम हिन्दी दिवस से बदल कर "हिन्दी हेतु रुदन दिवस" कर दिया जाए| इससे देश का मान बढ़ेगा और हिन्दी को भी आत्मिक संतोष मिलेगा कि कम से कम उसके नाम पर एक दिन रोया तो जाता है| 


अरुण कान्त शुक्ला
14
सितम्बर, 2016

Thursday, September 10, 2015

चाय, हिन्दी, हिन्दी सम्मेलन और हिन्दी की कुतरनें..


जी हाँ, अभी जिस दौर से हम गुजर रहे हैं उसमें चाय उपनिषद से लेकर उपग्रह, मेडिसन स्क्वायर से लेकर भोपाल के हिन्दी सम्मलेन तक के बीच के हर दौर में मौजूद रहेगी| भारत में 32 साल के बाद हो रहे हिन्दी सम्मेलन में भी चाय मौजूद थी| यह बात अलग है कि भारत सरकार के विदेश विभाग और मध्यप्रदेश सरकार के इस संयुक्त त्रिदिवसीय उपक्रम में देश के नामी साहित्यकारों को इसलिए उन्हें नहीं बुलाया गया क्योंकि भारत सरकार के विदेश विभाग के राज्यमंत्री और भूतपूर्व थल सेनाध्यक्ष वही पी सिंह के अनुसार बड़े साहित्यकार व्हिस्की ज्यादा पी जाते हैं| पर, हमें तो चाय पर बात करनी है| चाय की महिमा अपरम्पार है| सोचिये यदि चाय नहीं होती तो आज हमें माननीय नरेंद्र मोदी जैसा ओजस्वी भाषण देने वाला प्रधानमंत्री कहाँ से मिलता? उन्होंने गुजरात में चाय बेचते बेचते हिन्दी सीखी थी| है न बहुत कमाल की बात! अब यह बात अलग है कि आप दक्षिण भारत में जाएँ तो आपको रेलवे स्टेशन पर मौजूद कुली से लेकर ऑटो रिक्शा, टेक्सी, रेस्टोरेंट में प्राय: सभी काम करने वाले, व्यवसायी और स्वरोजगारी हिन्दी ही क्या अंगरेजी भी बोलते मिल जायेंगे, जबकि उनकी शिक्षा बहुत थोड़ी होगी| पर, हमारे प्रधानमंत्री के लिए हिन्दी का महत्व इससे भी बढ़कर है| उनके हिसाब से हिन्दी लड़ाई-झगड़े की भाषा है| उनका कहना है कि उनके गुजरात में जब दो गुजराती लड़ाई करते हैं तो हिन्दी में बोलने लगते हैं| क्योंकि उन्हें लगता है कि हिन्दी में बोलने का असर ज्यादा होता है| गनीमत है कि उन्होंने यह नहीं बताया कि क्या बोलने लगते है? वरना, मैं परेशानी में फंस जाता कि लिखूं तो कैसे लिखूं!

बहरहाल, अब थोड़ी गंभीर बात| यह जो हो रहा है, वह हिन्दी सम्मेलन है और हिन्दी साहित्य से इसका कुछ भी लेना-देना नहीं है, इसलिए साहित्यकारों को नहीं बुलाये जाने पर कोई नाराजी नहीं होनी चाहिए| आशंकाएं और कुशंकाएँ केवल इसलिए हो रही हैं कि पिछले 40 वर्षों में हुए 9 हिन्दी सम्मेलनों से हिन्दी को कुछ हासिल नहीं हुआ और सभी सरकारों की रहनुमाई में ही हुए हैं| अब आप इस दसवें हिन्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में जिन विषयों पर विचार होना है, उन्हें उठाकर देखिये| इन विषयों में आपको एक भी विषय ऐसा नहीं मिलेगा, जो भारत की शिक्षा व्यवस्था में हिन्दी के महत्त्व को स्थापित करने में सरकार की भूमिका को रेखांकित करता हो| अभी इसी वर्ष प्राय: सभी राज्यों में (छत्तीसगढ़ में लगभग 3000) सरकारी स्कूल, जिनमें हिन्दी माध्यम से पढ़ाई होती थी, बंद किये गए हैं| सरकार ही नहीं, निजी क्षेत्र की भी रोजगार देने की पूरी व्यवस्था इस बात पर निर्भर है कि आपको इंग्लिश आती है या नहीं|

वह हर परिवार, जो अपने बच्चे को किसी अच्छी नौकरी या व्यवसाय में देखना चाहता है, आज इंग्लिश स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने के लिए अभिशप्त है| सरकारी स्कूलों में वर्षों से शिक्षक की जगह शिक्षा कर्मी या इसी तरह के पदनाम वाले शिक्षकों की भर्ती हो रही है, जिन्हें न पर्याप्त वेतन दिया जाता है और न ही उनकी कोई खैरख्वाह ली जाती है| पूरी शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य यदि पहले उपनिवेशवाद को मजबूत करना था तो आज भी वही है कि ऐसे लोग पैदा किये जाएँ, जो न केवल देशी शासकों की गुलामी करें बल्कि उनके मार्फ़त साम्राज्यवाद को भी मजबूत करें| भाषा चाहे कोई भी हो, उसका हमेशा दुहरा चरित्र होता है| यह संप्रेषण का माध्यम होने के साथ साथ संस्कृति की वाहक भी होती है| इसीलिए जब हमारे प्रधानमंत्री हिन्दी अथवा अन्य प्रादेशिक भाषाओं को सशक्त बनाने की नहीं, डिजिटल दुनिया के हिसाब से परिवर्तित करने की बात अपने उदघाटन भाषण में कहते हैं तो मुझे लगता है कि राष्ट्रीय संस्कृति, राष्ट्रवाद, संस्कृत में छिपे ज्ञान के भंडार की शब्दावली की आड़ में वे हमें साम्राज्यवाद के जबड़े में धकेल रहे है|

अंत में, मैं आपको एक कहानी सुनाना चाहूंगा| एक व्यक्ति के घर में बहुत चूहे थे| वह बाजार से एक किताब खरीद कर लाया ‘चूहे मारने के 100 उपाय’| किताब को उसने घर में एक जगह रख दिया| रात में जब वह सो गया, चूहे बिल से निकले और जब उन्हें कुछ खाने नहीं मिला तो उन्होंने उस किताब को कुतरना शुरू कर दिया| किताब ने चूहों से कहा कि तुम बहुत गलत कर रहे हो, देखो मेरे अन्दर तुमको मारने के 100 उपाय दिए गए हैं, तुम मारे जाओगे| चूहे हंसे और किताब कुतरते रहे| किताब फिर बोली, सुबह मालिक उठेगा तो वह मेरे अन्दर दिए गए तरीकों से तुम सबको मार देगा, चूहे फिर हँसे और किताब कुतरने में लग गए| सुबह हुई तो मालिक को उस किताब की छोटी छोटी कुतरनें मिली| इस देश का पूंजीपति वर्ग, राजनीति, नौकरशाही उस चूहे के सामान ही देश को कुतरने में लगा है, जिसमें हिन्दी से लेकर हमारी भूख तक सब शामिल है| हिन्दी सम्मेलन उसी क्रिया का एक और छोटा हिस्सा है| तीन दिन रुकिए, आखिर में आपको भोपाल के लाल परेड ग्राऊंड में माखनलाल चतुर्वेदी नगर नहीं, हिन्दी की कुतरनें पड़ी मिलेंगी|

अरुण कान्त शुक्ला

10 सितम्बर, 2015