Thursday, September 10, 2015

चाय, हिन्दी, हिन्दी सम्मेलन और हिन्दी की कुतरनें..


जी हाँ, अभी जिस दौर से हम गुजर रहे हैं उसमें चाय उपनिषद से लेकर उपग्रह, मेडिसन स्क्वायर से लेकर भोपाल के हिन्दी सम्मलेन तक के बीच के हर दौर में मौजूद रहेगी| भारत में 32 साल के बाद हो रहे हिन्दी सम्मेलन में भी चाय मौजूद थी| यह बात अलग है कि भारत सरकार के विदेश विभाग और मध्यप्रदेश सरकार के इस संयुक्त त्रिदिवसीय उपक्रम में देश के नामी साहित्यकारों को इसलिए उन्हें नहीं बुलाया गया क्योंकि भारत सरकार के विदेश विभाग के राज्यमंत्री और भूतपूर्व थल सेनाध्यक्ष वही पी सिंह के अनुसार बड़े साहित्यकार व्हिस्की ज्यादा पी जाते हैं| पर, हमें तो चाय पर बात करनी है| चाय की महिमा अपरम्पार है| सोचिये यदि चाय नहीं होती तो आज हमें माननीय नरेंद्र मोदी जैसा ओजस्वी भाषण देने वाला प्रधानमंत्री कहाँ से मिलता? उन्होंने गुजरात में चाय बेचते बेचते हिन्दी सीखी थी| है न बहुत कमाल की बात! अब यह बात अलग है कि आप दक्षिण भारत में जाएँ तो आपको रेलवे स्टेशन पर मौजूद कुली से लेकर ऑटो रिक्शा, टेक्सी, रेस्टोरेंट में प्राय: सभी काम करने वाले, व्यवसायी और स्वरोजगारी हिन्दी ही क्या अंगरेजी भी बोलते मिल जायेंगे, जबकि उनकी शिक्षा बहुत थोड़ी होगी| पर, हमारे प्रधानमंत्री के लिए हिन्दी का महत्व इससे भी बढ़कर है| उनके हिसाब से हिन्दी लड़ाई-झगड़े की भाषा है| उनका कहना है कि उनके गुजरात में जब दो गुजराती लड़ाई करते हैं तो हिन्दी में बोलने लगते हैं| क्योंकि उन्हें लगता है कि हिन्दी में बोलने का असर ज्यादा होता है| गनीमत है कि उन्होंने यह नहीं बताया कि क्या बोलने लगते है? वरना, मैं परेशानी में फंस जाता कि लिखूं तो कैसे लिखूं!

बहरहाल, अब थोड़ी गंभीर बात| यह जो हो रहा है, वह हिन्दी सम्मेलन है और हिन्दी साहित्य से इसका कुछ भी लेना-देना नहीं है, इसलिए साहित्यकारों को नहीं बुलाये जाने पर कोई नाराजी नहीं होनी चाहिए| आशंकाएं और कुशंकाएँ केवल इसलिए हो रही हैं कि पिछले 40 वर्षों में हुए 9 हिन्दी सम्मेलनों से हिन्दी को कुछ हासिल नहीं हुआ और सभी सरकारों की रहनुमाई में ही हुए हैं| अब आप इस दसवें हिन्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में जिन विषयों पर विचार होना है, उन्हें उठाकर देखिये| इन विषयों में आपको एक भी विषय ऐसा नहीं मिलेगा, जो भारत की शिक्षा व्यवस्था में हिन्दी के महत्त्व को स्थापित करने में सरकार की भूमिका को रेखांकित करता हो| अभी इसी वर्ष प्राय: सभी राज्यों में (छत्तीसगढ़ में लगभग 3000) सरकारी स्कूल, जिनमें हिन्दी माध्यम से पढ़ाई होती थी, बंद किये गए हैं| सरकार ही नहीं, निजी क्षेत्र की भी रोजगार देने की पूरी व्यवस्था इस बात पर निर्भर है कि आपको इंग्लिश आती है या नहीं|

वह हर परिवार, जो अपने बच्चे को किसी अच्छी नौकरी या व्यवसाय में देखना चाहता है, आज इंग्लिश स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने के लिए अभिशप्त है| सरकारी स्कूलों में वर्षों से शिक्षक की जगह शिक्षा कर्मी या इसी तरह के पदनाम वाले शिक्षकों की भर्ती हो रही है, जिन्हें न पर्याप्त वेतन दिया जाता है और न ही उनकी कोई खैरख्वाह ली जाती है| पूरी शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य यदि पहले उपनिवेशवाद को मजबूत करना था तो आज भी वही है कि ऐसे लोग पैदा किये जाएँ, जो न केवल देशी शासकों की गुलामी करें बल्कि उनके मार्फ़त साम्राज्यवाद को भी मजबूत करें| भाषा चाहे कोई भी हो, उसका हमेशा दुहरा चरित्र होता है| यह संप्रेषण का माध्यम होने के साथ साथ संस्कृति की वाहक भी होती है| इसीलिए जब हमारे प्रधानमंत्री हिन्दी अथवा अन्य प्रादेशिक भाषाओं को सशक्त बनाने की नहीं, डिजिटल दुनिया के हिसाब से परिवर्तित करने की बात अपने उदघाटन भाषण में कहते हैं तो मुझे लगता है कि राष्ट्रीय संस्कृति, राष्ट्रवाद, संस्कृत में छिपे ज्ञान के भंडार की शब्दावली की आड़ में वे हमें साम्राज्यवाद के जबड़े में धकेल रहे है|

अंत में, मैं आपको एक कहानी सुनाना चाहूंगा| एक व्यक्ति के घर में बहुत चूहे थे| वह बाजार से एक किताब खरीद कर लाया ‘चूहे मारने के 100 उपाय’| किताब को उसने घर में एक जगह रख दिया| रात में जब वह सो गया, चूहे बिल से निकले और जब उन्हें कुछ खाने नहीं मिला तो उन्होंने उस किताब को कुतरना शुरू कर दिया| किताब ने चूहों से कहा कि तुम बहुत गलत कर रहे हो, देखो मेरे अन्दर तुमको मारने के 100 उपाय दिए गए हैं, तुम मारे जाओगे| चूहे हंसे और किताब कुतरते रहे| किताब फिर बोली, सुबह मालिक उठेगा तो वह मेरे अन्दर दिए गए तरीकों से तुम सबको मार देगा, चूहे फिर हँसे और किताब कुतरने में लग गए| सुबह हुई तो मालिक को उस किताब की छोटी छोटी कुतरनें मिली| इस देश का पूंजीपति वर्ग, राजनीति, नौकरशाही उस चूहे के सामान ही देश को कुतरने में लगा है, जिसमें हिन्दी से लेकर हमारी भूख तक सब शामिल है| हिन्दी सम्मेलन उसी क्रिया का एक और छोटा हिस्सा है| तीन दिन रुकिए, आखिर में आपको भोपाल के लाल परेड ग्राऊंड में माखनलाल चतुर्वेदी नगर नहीं, हिन्दी की कुतरनें पड़ी मिलेंगी|

अरुण कान्त शुक्ला

10 सितम्बर, 2015                          

Wednesday, September 9, 2015

आधी बाँह के कुर्ते और गांधी

मुझे नहीं लगता कि राजनीति में जनता के किसी भी तबके से संवाद स्थापित करते समय कुछ भी 
अतिशयोक्तिपूर्ण कथन करने की कोई आवश्यकता पड़ती है| धोने में आलस्य आने या कठनाई होने 
पर कोई कुर्ते की बाँह काट दे और फिर कहे कि वह केवल 4 घंटे सोता है और दिन रात काम में भिड़ा रहता है, मुझे बात जमी नहीं| इसमें कहीं न कहीं अतिश्योक्ति है| फिर यह कहना कि फिर यह फैशन में आ गया, यह दिखाता है कि आप के अंतर्मन में फैशन आईकॉन बनने की इच्छा है| मीडिया ने और स्वयं उनके प्रचारतंत्र ने चुनावों के दौरान एक फैशन आईकॉन के रूप में भी उनकी छवि को पेश किया था| यहाँ तक कि उनकी अमेरिका की यात्रा के दौरान भी उनके कुछ पिठ्ठू चैनलों और अखबारों ने इस प्रचार को चलाया था और मेडिसन स्क्वायर पर उनकी सभा को भी उसी रूप में पेश किया था क्योंकि मेडिसन में अक्सर फ़िल्मी सितारों के और मनोरंजन के कार्यक्रम ही होते हैं और साधारणत: गंभीर राजनीतिज्ञों को वहां सभा करने से परहेज होता है| लोग स्वयं होकर आपका अनुकरण करें यह और बात है, पर आप स्वयं जब किसी फैशन को शुरू करने वाले के रूप में स्वयं को प्रस्तुत करें और वह भी बच्चों के सामने तो फिर आपकी राजनीतिक गंभीरता पर सवाल उठना लाजिमी है| यह भी पूछा जा सकता है कि कुछ संगठनों का गणवेश क्या इसी आलस्य के कारण आधा पतलून है? फिर कुर्ते की लंबाई कम क्यों नहीं की? अनेकों सवाल हैं, जो पूछे जा सकते हैं| पर नहीं पूछूंगा|  

भारत में फेंकने की विधा के वे माननीय एक ही पारंगत हैं| मैंने 1966 में आधी बांह का कुर्ता और वह भी शार्ट अपने एक मित्र से भोपाल में सिलवाया और पहना था| यही नहीं मैं उसे पेंट पर जूते मोज़े के साथ पहना करता था| लोग और मित्र हंसते भी थे| यह अलग बात है कि उस समय दरजी ऐसे कुरते सिलते नहीं थे क्योंकि वे प्रचलन में नहीं थे और उन्हें ऐसे कपडे सिलना अटपटा लगता था| मेरे मित्र के पालकों का व्यवसाय ही टेलरिंग था और वह 10 वर्ष की आयु से उस काम में पढ़ाई के अलावा रुची लेता था या उसके पिता चाचा आदि उसे प्रेरित करते थे| इसे आप आज की कौशल शिक्षा कह सकते हैं| मेरे घर में भी दो गज कपड़ा खराब कर दोगे कहकर बहुत नाराजी थी, पर अंतत: मैं कामयाब हुआ| मैं उस समय 16 वर्ष का था और 11वीं की परिक्षा दे रहा था| पर, सचाई यह है कि मुझे भी उस तरह का कुर्ता सिलवाने का आईडिया शम्मी कपूर की किसी फिल्म से आया था, जिसमें शम्मी कपूर ने कोहनी से थोड़ी नीचे वाली टीशर्ट पहनी थी और जैसी की उनकी अदा थी, उसका कॉलर खड़ा रखा था| मैंने बस दोस्त के पिता से कॉलर को आधा करने और बांह की लंबाई कोहनी से उपर करके नीचे दो जेब लगाने कहा था| गाँव-देहात में लोग दशकों से ऐसे कुर्ते, उससे भी शार्ट, जैसे आज बनते हैं, पहनते आ रहे हैं| पर, वे कभी फैशन आईकॉन नहीं बने|


मैं आपको बताऊँ, बहुत बाद में उस डिजाईन का कुरता राजेश खन्ना ने फिल्म सच्चा झूठा में पहना था| यह तब भी सामान्य रूप से फैशन में नहीं आया| इसका कारण देश का अविकसित और पिछड़ा रेडीमेड गारमेंट उद्योग था| अब कारपोरेट प्रबल है और वह पहले आईकान बनाता है और फिर मार्केट में सामग्री| आधी बांह का कुरता मैं 1998 से लगभग लगातार पहन रहा हूँ और वह भी सिलवाकर, यहीं रायपुर में| कुर्ता टी शर्ट भी मैं लगभग 1982 से पहन रहा हूँ| आज का आधी बांह का कुर्ता उसी का रूप है| इसकी शुरुवात बंगाल से हुई है|


वे फेंकने की कला के माहिर हैं, उन्हें फेंकने दीजिये | दो तीन पीढियां गुजरने के बाद , विशेषकर राजनीति में ऐसे लोग आ ही जाते हैं, मानो उन अकेले ने सब त्रासदियाँ भोगी हैं| लेम्प/दिए की रोशनी, स्ट्रीट लाईट में पढाई , यह भारत की अधिकाँश जनता ने की है और यहाँ तक की मध्यम वर्ग ने भी की है, उस समय देश का विकास, संसाधनों का विकास उतना ही हुआ था| वह देश पर कोई अहसान नहीं है| पर, बिजली युग में पैदा हुई पीढ़ी को ऐसा लगता है, मानो इन नेताओं ने कोई बड़ी कुरबानी की है|


अभी के राष्ट्रपति ने, अभी, और जब वह वित्तमंत्री थे तब भी, ऐसा ही सब कहा था| अब माननीय प्रधानमंत्री कह रहे हैं|  दोनों ने कहा कि वे शुरू में तीन चार साल स्कूल ही नहीं गए| यदि उनके कहने का तात्पर्य यह है कि वे स्कूल जाने योग्य आयु होने के बाद स्कूल नहीं गए, तब भी यह गलत सन्देश है और यदि वे यह कह रहे हैं कि स्कूल में प्रवेश के बाद वे स्कूल बंक करते थे तो वे राष्ट्र के बच्चों के सामने बहुत ही गलत उदाहरण पेश कर रहे हैं|  


इसी तरह बच्चों से यह कहना कि वे बहुत शरारती थे, एक गलत संवाद है| आप सरल दिखने के लिए, जोकि माननीय प्रधानमंत्री की आदत है, गलत उदाहरण बनाकर प्रस्तुत न हों, बेहतर यही होगा| पिछली बार उन्होंने अपनी शरारती स्वभाव का उदाहरण देते हुए कहा था कि वे किसी भी शादी के पंडाल में घुसकर खाना खाकर आ जाते थे और दोनों पक्ष समझते थे कि यह उनका आदमी है| यह एक गलत सन्देश है और आपराधिक कृत्य को बढ़ावा देना है| इसी तरह शादी में शहनाई बजाने वाले के सामने इमली या आचार का टुकड़ा हिलाना ताकि उसके मुंह में पानी आये और वह शहनाई न बजा पाये, एक गलत शरारत है और ऐसे बच्चों की ढूंढकर बेतहाशा पिटाई की जाती थी|


ऐसा नहीं है कि इतिहास में कभी महापुरुषों ने बचपन की अपनी शरारतों, गलतियों और भूलों को स्वीकार नहीं किया है|  गांधी इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं| उन्होंने बीड़ी पीने से लेकर पैसा चुराने और कस्तूरबा को मारने जैसी सभी बातों को स्वीकार किया पर उन्हें महिमामंडित नहीं किया| उनकी स्वीकारोक्ति से अपराध करने, शरारत करने की प्रेरणा नहीं मिलती बल्कि ऐसा न किया जाए कि भावना प्रगट होती है क्योंकि हर घटना के साथ उन्होंने बताया कि उन्हें अपराध बोध हुआ और उन्होंने पश्चाताप किया तथा वैसे कृत्य पुन: न करने का संकल्प लिया|  इनकी बातों में उसका अभाव है और यह अभाव इनकी राजनीति में भी दिखता है| धो न सको तो बांह काट देने की राजनीति में, गलतियों को महिमामंडित करने तथा अपराधों और भूलों के लिए प्रायश्चित न करने की राजनीति में|


अरुण कान्त शुक्ला
7 सितम्बर, 2015