Monday, May 18, 2015

अच्छा हुआ, अरुणा शानबाग, तुम मर गईं...



अच्छा हुआ, अरुणा शानबाग, तुम मर गईं...

अच्छा हुआ अरुणा शानबाग तुम मर गईं! तुम 42 साल तक कोमा में रहीं| शरीर के हिसाब से यह एक दर्दनाक स्थिति है| जंजीरों से बांधकर किये गए क्रूर बलात्कार के बाद 42 साल तक ज़िंदा मृत के सामान पड़े रहना, यह वह जिन्दगी है जो बुद्ध, विवेकानंद, गांधी के देश के लोगों ने तुन्हें दी| मैं ईश्वर जैसी किसी सत्ता को नहीं मानता| पर, ईश्वर नाम की उस शख्सियत से डरता बहुत हूँ| क्यों डरता हूँ, क्योंकि इस देश में उसी के नाम से शासन चलाया जाता है| क्यों डरता हूँ, क्योंकि हर बलात्कार के बाद यही कहा जाता है कि ईश्वर की यही मर्जी थी| क्यों डरता हूँ, क्योंकि उसकी और उसके अनुयायियों की अनुकंपनाएं सीधे-सच्चे-सहृदय लोगों पर नहीं बरसतीं| सीधे-सच्चे-सहृदय लोगों के लिए उसके पास सिर्फ सजाएं हैं, क्रूरता है| किसी दिन मिला तो उससे पूछूंगा कि सीधे-सच्चे-सहृदय लोगों को ही उसकी सजाएं क्यों रोज भुगतनी पड़ती हैं?ये सजायें, जो रोजमर्रा के अमानवीय अपमानों से शुरू होती हैं और भूख के बाजार से होता हुई जिस्म की मौत पर खत्म होती हैं|

मुझे नहीं मालूम, अभी तक विज्ञान इसका पता कर पाया है कि नहीं कि जो व्यक्ति कोमा में रहता है वह सोच सकता है या नहीं? वह सुन सकता है या नहीं? पर, मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ, शायद सुन सकता होगा! पर सोच तो कतई नहीं सकता होगा| मेरे इस विशवास का कारण है| मेरा यह देश पिछले 68 वर्ष से, 15 अगस्त, 1947 से कोमा में है| तुम 42 साल लगातार कोमा में रहीं, तुम्हारे साथ बलात्कार हुआ था| तुमने प्रतिवाद भी किया होगा| तुम्हें चोट लगी थी| तुम सहन नहीं कर पाईं| देशवासी किसी भी देश का शरीर होते हैं| इस देश के लोगों के साथ भी 200 वर्षों तक बलात्कार हुआ| हमने संघर्ष भी किया| हमारे पुरुखों ने अपनी जानें कुर्बान कीं| घायल हुए| पर, कोमा में नहीं गए| आजादी हासिल किये| पर, उसके बाद हमारे हुक्मरानों ने हमें कोमा में भेज दिया| तुम घायल होकर कोमा में गईं| हम होश-ओ-हवास में कोमा में भेजे गए| लोकतंत्र के कोमा में| हमारे अपने स्वराज के कोमा में| हमें हर पांच साल में चुनावी ग्लूकोज की बाटल चढ़ाई जाती है| उस बाटल में आश्वासन का इंजेक्शन लगाया जाता है| मोहक सपनों के वेंटीलेटर पर हमें ज़िंदा रखा जाता है| हम एक ऐसे कोमा में हैं जिसमें देख सकते हैं पर कुछ कर नहीं सकते| सुन सकते हैं पर सोच नहीं सकते| हमें मूर्ख बनाया जा रहा है, जान सकते हैं पर समझ नहीं सकते| मोहक सपनों का वेंटीलेटर हमें ज़िंदा रहने के भ्रम का अहसास कराता है| हम स्वयं को सुरक्षित समझते हैं, पर हैं नहीं| तुम भी इसी कोमा में थीं| तुम्हें लगता था, इतना बड़ा अस्पताल, सहकर्मी, तुम सुरक्षित हो, पर तुम दूसरे कोमा में चली गईं|

इस दूसरे कोमा में जाने वाली तुम अकेली नहीं हो| निर्भया भी गयी है| प्रति मिनिट एक लड़की जाती है| हर घंटे एक किसान जाता है| हर घंटे एक मजदूर जाता है| और सभी मर जाते हैं| जो मरते नहीं हैं, वे मोहक सपनों और आश्वासनों के कोमा में मृतप्राय पड़े रहते हैं| इसीलिये उन्हें तुम्हारे मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता| इसलिए कि जो कोमा में हैं, उन्हें किसी भी चीज से कोई फर्क नहीं पड़ता|

अरुण कांत शुक्ला,                                                       
18/5/2015            
                  
  

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